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Showing posts from June, 2016

LOVE

My wife and I have known each other since high school, but didn’t date until much later. We had only dated a couple of weeks before we realized that we were madly in love and wanted to get married. I was all for it! I even suggested a spontaneous, immediate wedding in Vegas. (Seriously.) Kim, however, was a bit more practical about the whole thing. She wanted to take time to plan it all out. I felt deflated. “We’re so different,” I said. “You like to plan, while I like to be spontaneous.” Kim’s eyes widened. “I can be spontaneous!” she said, hurriedly. “I can totally be spontaneous. You just have to tell me in advance when you want to be spontaneous, and I will write it down in my planner…” I gave her a strange look. She was totally serious! Clearly, Kim did not understand the meaning of spontaneity. Funny as it may seem, the more I think about this conversation the more I’ve come to realize that planning to love someone—or choosing to love someone—is actually one of the mo

कृष्णएकांत

तिच्या अंगणातील प्राजक्त बंदी तरी सत्यभामे ढळे तोल का ? झाडाप्रमाणे असे झाड हेही असे सांगते ती ,तरी हुंदका ? इथे बासरीच्या गडे आतड्याला हवा चंदनी लाकडाची नवी; तुला रुक्मिणी का फुले वेचताना सुगंधातही भेटते वाळवी ? संहार आता करा यादवांचा जुनी राजधानी निनावी करा ; रथाला कुणी अश्व देऊ नका अन शिरच्छेद माझे कसेही करा . तिथे कृष्णएकांत देठात प्राजक्त राधेस हा रंग येतो कसा ? सर्वेश्वराला कधी या मुलीने न मागीतला रे तिचा आरसा…. . वैराण आयुष्य झाले तरीही फुलांना कुणी बोल देऊ नये; मी बांधलेल्या उन्हाळी घरांच्या गवाक्षातला चंद्र झाकू नये. नको धाक घालू नको हाक तोलू इलाख्यातली गुप्त झाली नदी ; निजेच्या भयाने जसा शुभ्र होतो खुनाच्या कटातूनहि गारदी… : सांध्यपर्वातील वैष्णवी :  ग्रेस

मंदिरों में बँटे अब यही प्रसाद

मंदिरों में बँटे अब यही प्रसाद, एक पौधा और थोड़ी सी खाद अब मस्जिद में यही अजान, दरख्त लगाए हर इंसान । अब गूंजे गुरूद्वारों में वाणी, दे हर बंदा पौधों को पानी । सभी चर्च दें अब शिक्षा, वृक्षारोपण येशु की इच्छा ।

सदमा तो है मुझे भी के तुझसे जुदा हूँ मैं

सदमा तो है मुझे भी के तुझसे जुदा हूँ मैं लेकिन ये सोचता हूँ कि अब तेरा क्या हूँ मैं बिखरा पड़ा है तेरे ही घर में तेरा वजूद बेकार महफ़िलों में तुझे ढूँढता हूँ मैं मैं खुदकशी के जुर्म का करता हूँ ऐतराफ़ अपने बदन की क़ब्र में कब से गड़ा हूँ मैं किस किस का नाम लाऊँ जुबाँ पर के तेरे साथ हर रोज़ एक शख़्स नया देखता हूँ मैं ना जाने किस अदा से लिया तूने मेरा नाम दुनियां समझ रही है के सब कुछ तेरा हूँ मैं ले मेरे तजुर्बों से सबक ऐ मेरे रक़ीब दो चार साल उम्र में तुझसे बड़ा हूँ मैं जागा हुआ ज़मीर वो आईना है ' क़तील ' सोने से पहले रोज़ जिसे देखता हूँ मैं !!
disawar satta king