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Showing posts from September, 2009

आभाळाचे मन

असे असावे वाटते तसे नसावे वाटते अशा तशा वाटण्याने मन सारखे कोंडते अशा वाटण्याने झाले जग मजला पारखे अशा वाटण्याने झाले दुख माझे मुके मुके उशिरा हि ठेच किति उशिरा हे ज्ञान आता आजपासुनिया माझे आभाळाचे मन

संस्कार

जगण्याच्या हरवलेल्या निखळपणावर पैसा, प्रसिद्दि, प्रतिष्ठा हे जगण्याचे निकष ठरतात....आणि माणूस इतरांच्या नजरेतून जगायला लागतो.....स्वतःकड़े बघायला लागतो...यालाही संस्कार म्हणतात.... जे त्याला स्वतःच्या आत कधीही डोकावू देत नाहीत...

खुदा के वास्ते उसको न टोको यही एक शहर मैं क़ातिल रहा है

खुदा के वास्ते उसको न टोको यही एक शहर मैं क़ातिल रहा है कुछ तो होते हैं मोहब्बत मैं जुनून के आसार और कुछ लोग भी दीवाना बना देते हैं

हर क़दम पर नित नये सांचे में ढल जाते हैं लोग

हर क़दम पर नित नये सांचे में ढल जाते हैं लोग देखते ही देखते कितने बदल जाते हैं लोग किस लिए कीजिए किसी गुम-गश्ता जन्नत की तलाश जब कि मिट्टी के खिलौनों से बहल जाते हैं लोग कितने सादा-दिल हैं अब भी सुन के आवाज़-ए-जरस पेश-ओ-पास से बे-खबर घर से निकल जाते हैं लोग शमा की मानिंद अहल-ए-अंजुमन से बे-न्याज़ अक्सर अपनी आग मैं चुप चाप जल जाते हैं लोग शाएर उनकी दोस्ती का अब भी दम भरते हैं आप ठोकरें खा कर तो सुनते हैं संभल जाते हैं लोग :  हिमायत अली शाएर